Its a poem written by Imroz for Amrita Pritam.
सामने कई राहें बिछी थी...
मगर कोई राह ऐसी नहीं थी
जिसके साथ मेरा अपना आप चल सके
सोचता.....कोई हो मंजिल जैसी राह
वह मिली तो जैसे
एक उम्मीद मिली ज़िन्दगी को
ये मिलन चल पड़ा
हम अक्सर मिलने लगे
चुपचाप कुछ कहते....कुछ सुनते
चलते-चलते कभी-कभी
एक दूसरे को देख भी लेते
एक दिन चलते हुए
उसने अपने हांथों की उंगलियाँ
मेरे हांथों की उंगलियों में मिला दी
और मेरी तरफ इस तरह देखा
जैसे ज़िन्दगी पहेली बूझना चाहती हो...
कि बता तेरी उंगलियाँ कौन सी हैं
मैंने उसकी तरफ देखा
और नज़र से ही उससे कहा
सारी उंगलियाँ मेरी भी
सारी उंगलियाँ तेरी भी
एक तारीखी इमारत के
बागीचे में चलते हुए
मेरा हाथ पकड़कर
कुछ ऐसे देखा
जैसे पूछ रही हो
इस तरह मेरे साथ
तू कहाँ तक चल सकता है
मैंने कितनी ही देर
उसका हाथ अपने हाथों में दबाए रखा
जैसे हथेलियों के रास्ते
ज़िन्दगी से कह रहा हूँ
जहाँ तक तुम सोच सको.....
कितने ही बरस बीत गए
इसी तरह चलते हुए
एक दूसरे का साथ देते हुए
साथ लेते हुए
इस राह पर
इस मंजिल जैसी राह पर......!!!!!
No comments:
Post a Comment