आज से १० साल पहले जब मैं दिल्ली आया था...तो सोचा नहीं था कि ये शहर मेरा इतना करीबी बन जायेगा..... इस शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया है....जब में पहली बार यहाँ यहुचा तो मेरी उमर 17 साल थी...मुझे बहुत सारी चीजों का एहसास इसी शहर ने कराया.....मुझे पहली बार प्यार का एहसास भी यहीं हुआ.... यहाँ इतने साल रहने के बाद मुझे इस शहर से प्यार हो गया है.....मुझे नहीं लगता की मैं कभी इससे छोड़ पाऊंगा....कितना कुछ छुपा रखा है इस शहर ने अपने सीने में.....कितने सारे राज़ हैं इस शहर की मिट्टी में.....यहाँ कि खंडरों के पत्थरों में कितनी कहानियां छुपी हुई हैं....मुझे लगता है अगर में यहाँ १०० साल भी रहूँगा तब भी पूरी तरह इसे नहीं जान पाऊंगा....
मेरी सबसे करीबी दोस्त को भी ऐसा ही कुछ जूनून हैं...पर उसका जूनून मुझसे पुराना है....एक वक़्त था जब वो मुझसे इस शहर के कई हिस्सों को देखने चलने को कहती थी....जैसे कि पुरानी दिल्ली कि गलियां, महरौली, तुग़लकाबाद और न जाने क्या क्या....पर उस वक़्त मुझे ये सब बातें बड़ी ही बेमानी लगती थी....शायद तब मेरी समझ उसके जितनी नहीं थी.....मेरे दिमाग कि दायरा थोड़ा कम था..... इसका ताल्लुक उम्र के साथ भी हो सकता है.....क्योंकि जिस उम्र में उसने या सारी बातें कही....मैं अब उसी उम्र में हूँ...... इससे ये भी पता चलता है कि दो लोगों को एक दूसरे को समझने के लिए एक उम्र का होना बहुत ज़रूरी है......
खैर, दिल्ली से मेरे इश्क कि शुरुआत तकरीबन एक साल पहले शुरू हुई.....जब मैंने यहाँ के इतिहास को पढना शुरू किया....तब मुझे पहली बार एहसास हुआ....कि जिस शहर में मैं रहता हूँ....वो कोई मामूली जगह नहीं है.....इसकी तारीख बहुत पुरानी है.... महाभारत काल से लेकर अब तक इस शहर ने क्या कुछ नहीं देखा.....कितने बादशाह इस ज़मीं के लिए लड़े और कितनों ने इसके लिए जान दी.....कितने बार मासूमों को मौत के घाट उतार दिया गया....और कितने बार उन्ही मासूमों ने एक होकर दुश्मनों को सामना किया.....कितने शायरों ने यहाँ प्यार और इश्क की नज्में लिखी...कितने संगीतकारों ने उन्हें सुर दिए.... इस शहर ने ये सब अपनी आँखों ने देखा है.... इस शहर की मिट्टी ने कितने अच्छे किरदारों को जन्म दिया है....और कितने लोगों ने इस ज़मीं पे कदम रखते ही इसे अपना बना लिया..... कुछ किरदार ऐसे हैं जिन्होंने मुझे बहुत प्रभावित किया....जैसे कि दारा शुकोह, जहाँआरा बेगम, हज़रत निज़ामुद्दीन, इब्न बतूता......
ऐसे में सिर्फ उस्ताद जौक का शेर ही याद आता है.....
इन दिनों गरचे दक्कन में हैं बड़े कद्र-ऐ-सुखन
कौन जाये "जौक" पर दिल्ली की गलियां छोड़ कर
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